Sunday, 30 October 2011

हरियाणा शब्द की व्युत्पत्ति

‘हरियाणा’ वैदिक कालीन शब्द है, जिसकी व्युत्पत्ति ‘हरि’ अथवा ‘हर’ और ‘यान’ के योग से हुई है। इसका व्युत्पत्तिमूलक अर्थ है ‘हरि या हर’ का ‘यान’ हरस्ययानम् ‘हरयाणम्’। इस भू-भाग विशेष में ‘हरि’ (विष्णु) ‘हर’ (शिव) उपास्य होने के कारण उनका भक्तियान यहां पर विचरता होगा। एक जनश्रुति विख्यात है कि एक बार ‘महाराजा हरिशचंद्र इस प्रदेश में आए थे। उन दिनों यह भू-भाग वनाच्छादित थ। उन्होंने इसे बसाया। परिणामस्वरूप ‘हरिश्चंद्र’ के नाम से ‘हरि’ का आना (हरि आना) हरियाणा नाम पड़ गया। आचार्य भगवान देव ने इसका सार्थक नाम‘हरियाणा’ माना है—
ऋजमुक्षण्यायने रजत हरयाणे।
रथं युक्त मसनाम सुषामणि।।
इस प्रकार से सब सुखों के दाता महानपुरूषों को भी आश्रय ‘हरयाणे’ सब दुखों को हरने वाले उस प्रभू के अधीन हम सब इंद्रियों से युक्त (रजतम्) सुंदर सुखदायक वेद धर्म पर चलने वाले इस देह रथ को प्राप्त करें।
विभिन्न विद्वानों के मतों के आधार पर प्रश्र यह उठता है कि इसकी व्युत्पत्ति ‘हरि’ से हुई या ‘हर’ से। पुरातन शिलालेखों में इस प्रदेश के लिए ‘हरि’ शब्द का बराबर प्रयोग हुआ है। प्राचीन शिलालेखों में तीन नाम मिलते हैं —‘हरियाणा’, ‘हरियाणक’ और हरितानक। दिल्ली संग्रहाल्य के एक अभिलेख के अनुसार तोमरों द्वारा निर्मित और पृथ्वी पर स्वर्ग के समान ढिल्लिका नगर का हरियाणा राज्य में होना बताया गया है। ‘ढिल्लिका’ दिल्ली का पुराना नाम है-
देशोअस्ति हरियानारण्य
पृथिन्या स्वर्ग सुन्निभ:
ढिल्लिका पूरी तंत्र
तोमरैरस्ति निर्मिता।
डॉ. यदुनाथ के अनुसार इस प्रदेश का नाम यहां की हरियाली के कारण ‘हरिनारण्यक’ पड़ गया होगा। देवीशंकर प्रभाकर के अनुसार ‘हरियाणा’ शब्द ‘हरि’ ‘अरण्य’ से निकलता है, जिसका मूल अर्थ है- हरि का वन। इस समस्त प्रदेश में सघन जंगल होने के कारण संभव है कि इसका नाम ‘हरिअरण्य’ रहा हो। इसके अतिरिक्त ‘स्कंद पुराण’ में कुरूक्षेत्र को हरिक्षेत्र कहा गया है। ‘महाभारत’ में हरि ‘कृष्ण’ के यहां आने से हरियाणा शब्द की पुष्टि होती है।
यहां पर यह तथ्य उल्लेखनीय है कि प्रारंभ में ‘हरियाणा’ शब्द इस भूखंड के लिए बहूधन्यक की तरह एक विशेषण के रूप में प्रयोग होता है। यह नाम इस प्रदेश के लिए 12वीं शताब्दी में प्रचलित हुआ है। सभी तथ्यों के विश्लेषण तथा अभिलेखों के उल्लेख से भाी यही निष्कर्ष निकलता है कि इस प्रदेश का वन बाहूल्य तथा इसकी हर्षक हरियाली ही निर्दिष्ट नामकरण का पुष्ट एवं मूल आधार है।

१.२ हरियाणा का स्वरूप
वैदिक काल में ‘यज्ञीय देश’, महाभारत काल में ‘अभिआरण्यक’ मनुस्मृति युग में ‘ब्रह्मक्र्त पर्व’ आदि नामों से पुकारा जाने वाला यह प्रदेश पूर्व मध्यकाल में आकर ‘हरियाणा’ हो गया। 1 नवंबर 1966 को वर्तमान हरियाणा राज्य अस्तित्व में आया। अब हरियाणा राज्य से अभिप्राय: उस लघु प्रदेश से है जो पंजाब से पृथक होकर 1 नवंबर 1966 को भारतवर्ष के मानचित्र पर संवैधानिक रूप से उभरा।
इस प्रकार वर्तमान हरियाणा उत्तर में शिवालिक पर्वत की श्रंखलाओं, हिमाचल प्रदेश में विषय क्षेत्रों तथा दक्षिण में अरावली की पहाडिय़ों, राजस्थान के थारा मरूस्थल से घिरा है। इस प्रांत की पूर्वी सीमा युमना नदी खींचती है तथा पश्चिम में यह राज्य पंजाब की फाजिल्का तहसील तक फैला हुआ है। इसमें बांगर, बागड़, नर्दक, खादर, मेवात के क्षेत्र सम्मिलित हैं। प्रशासनिक दृष्टि से हरियाणा राज्य को रोहतक, गुडग़ांव, हिसार, अंबाला चार मंडलों में विभाजित किया गया है। सन् 1991-92 में हरियाणा राज्य ने स्थापना के 25 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में रजत जयंति मनाई है।

१.३ हरियाणा का क्षेत्र विस्तार
हरियाणा का क्षेत्रफल देश के कुल क्षेत्रफल का 1.3 प्रतिशत है। यहां का क्षेत्रफल 44212 वर्ग किलोमीटर है। यहां की जनसंख्या सन् 1751 में 5659487 थी, सन् 1991 में 1 करोड़ 63 लाख 18 हजार जबकि 2001 में बढक़र 2102989 हो गई। हरियाणा में साक्षरता की औसत 57 प्रतिशत है।
1 नवंबर 1966 को तत्कालीन पंजाब राज्य के सात जिलों अंबाला, करनाल, रोहतक, हिसार, जींद, गुडग़ंाव व महेंद्रगढ़ को मिलाकर देश के 17वें राज्य के रूप में हरियाणा का गठन हुआ। प्रशासनिक विकेंद्रीयकरण के लिए समय-समय पर जिलों का पुर्नगठन किया गया ओर जिलों की संख्या बढ़ाकर 20 हो गई है।
तालिका-1
हरियाणा के नए जिलों का गठन
क्रम नए जिले गठन की तिथि
1 भिवानी 22 दिसंबर 1972
2 सोनीपत 22 दिसंबर 1972
3 कुरूक्षेत्र 23 जनवरी 1973
4 सिरसा 2 अगस्त 1979
5 फरीदाबाद 1 नवंबर 1989
6 यमुनानगर 1 नवंबर 1989
7 कैथल 1 नवंबर 1989
8 पानीपत 1 नवंबर 1989
9 रेवाड़ी 1 नवंबर 1989
10 पंचकूला 15 अगस्त 1995
11 झज्जर 15 अगस्त 1997
12 फतेहाबाद 15 अगस्त 1997
13 मेवात मार्च 2005
गठन के समय हरियाणा की विशेषता यह थी कि इसके हर जिले की सीमा किसी न किसी पड़ोसी राज्य से मिलती थी। प्रदेश का उत्तरी जिला अंबाला उत्तर में हिमाचल से अपनी सीमा बनाता था, तो पूर्व और पश्चिम मे क्रमश: उत्तरप्रदेश और पंजाब से, जिला करनाल के पूर्व में उत्तरप्रदेश और व पश्चिम में पंजाब था तो, जींद की उत्तरी सीमा की पंजाब से जुड़ती थी। जिला हिसार उत्तर में पंजाब व पश्चिम और दक्षिण में राजस्थान से जुड़ा था तो पूर्व में उत्तरप्रदेश से जिला रोहतक की सीमाएं भी देश की राजधानी दिल्ली और उत्तरप्रदेश से मिलती थी। यह स्थिति 13 नए जिले बनने के बाद भी बरकरार है। कुल 20 जिलों में से केवल जिला रोहतक को छोडक़र आज भी हर जिला किसी न किसी पड़ोसी राज्य से अपनी सीमा बनाता है।
१.४ हरियाणा की परिस्थितियां
जब भी कोई साहित्यकार किसी प्रदेश विशेष में साहित्य की रचना करता है तो वह उस प्रदेश की परिस्थितयों से प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता। इस ्रकारण आवश्यक बन जाता है कि हरियाणा में रचित समकालीन साहित्य का अध्ययन करने से पहले हरियाणा की परिस्थितियों पर दृष्टिपात किया जाए।
१.४.१ ऐतिहासिक परिस्थितियां
हरियाणा आर्य संस्कृति का केंद्र स्थल माना जाता रहा है। इसी भूमि पर महाभारत का ऐतिहासिक युद्ध हुआ और भगवाान श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया। ईसा की चौथी शताब्दी के पूर्व वर्षों में गुप्त वंश के चंद्रगुप्त प्रथम ने यौद्धेयों के गणतंत्र को नष्ट कर दिया और छठी शताब्दी में गुप्त साम्राज्य का अंत हो गया। तदुपरांत बीस-पच्चीस वर्ष हूणों ने इस प्रदेश पर राज्य किया। हूणों के पश्चात हर्षवर्धन ने यहां पर अपना राज्य कायम किया। हर्षवर्धन के पश्चात् इस राज्य की एकता छिन्न-भिन्न हो गई और उसके पश्चात तोमरों ने 12वीं सदी के अंत तक इस प्रदेश पर अपना राज्य कायम रखा।
इस प्रकार 1192 ई. में पृथ्वी राज चौहान की पराजय के पश्चात यह प्रदेश निर्माण एवं विध्वंस के दौर से गुजरता रहा। सन् 1250 के आस-पास यह प्रदेश फिरोजशाह के अधीन रहा। सन् 1410 में शेरशाहसूरी के वंशज खिजरखां ने इस क्षेत्र पर अपना आधिपत्य जमा लिया। इस पश्चात् सन् 1556 मे हेमू दिल्ली का सम्राट बना। परंतु उसका भी शीघ्र ही पतन हो गया। सन् 1707 में नवाब शाहदाद ने हिसार पर अपना शासन कायम किया। इसके पश्चात यहां महाराजा सूरजमल ने नेतृत्व में जाट राज्य की स्थापना हुई, परंतु शीघ्र ही उसका भी पतन हो गया। सन् 1819 में दिल्ली से लेकर हिसार तक के राज्यों की ईस्ट इंडिया कंपनी को सौंप दिया गया। सन् 1857 की क्रांति के पश्चात अंग्रेजों ने इस प्रदेश को भू-भाग को उत्तरप्रदेश ओर पंजाब के भू-भाग के साथ मिला दिया।
आजादी के पश्चात सरकार ने सन् 1953 में राज्यों के पुर्नगठन आयोग की स्थापना की और भाषा के आधार पर 1 नवंबर, 1966 को पंजाब को दो भागों में बांट दिया गया सिका हिंदी भाषी क्षेत्र हरियाणा कहलाया।

१.४.२ भौगोलिक परिस्थितियां
हरियाणा प्रदेश भारत के उत्तर-पश्चिम में 270 390 से 300 550 उत्तर अक्षांश तथा 740 280 से 770 360 पूर्व रेखांश के मध्य स्थित है। इसकी पूर्वी सीमा से उत्तरप्रदेश से अलग करती है। पश्चिम से पंजाब एवं राज्स्थान, उत्तर में पंजाब हिमाचल तथा गिरिमालाएं है, इसके दक्षिण में अरावली की पहाडिय़ां तथा राजस्थान का मरूप्रदेश है।
शिवालिक पर्वत की श्रेणियां अंबाला जिला के उत्तरी क्षेत्र में, दक्षिणी पूर्व दिशा में एक मेखला की तरह प्रदेश को घेरे हुए हैं। घग्घर तथा यमुना को दोआब काफी विस्तृत है। इसके ऊंचे भाग को ‘बांगर’ एवं निचले भाग को ‘खादर’ कहते हैं। अरावली की पहाडिय़ों का अािद जिले सम्मिलित किए जाते हैं। यह भाग ऊंचा-नीचा होने के कारण कम उपजाऊ है। हरियाणा में मई-जून महीने में तापमान 500 सेंटीग्रेड तक पहुंच जाता है। सर्दी के दिनों में यहां का तापमान 10 तक पहुंच जाता है। यहां पर अधिकतम वर्षा जून से लेकर सिंतबर माह तक मानसू पवनों द्वारा होती है। प्रदेश में 80 प्रतिशत वर्षा इसी कााल मेें होती है। हरियाणा राज्य में मुख्य रूपसे दो ही फसलें ली जाती है-
आसाढ़ी रबी और सावणी खरीफ। आसाढ़ी की फसलें सर्दी के मौसम में ली जाती हैं। इसमें गेहूं, जौ, चना आदि मुख्य हैं। सरसों एवं सूरजमुखी की फसलें भी इसी मौसम में ली जाती हैं। सावणी फसलें गर्मी के मौसम से ली जाती र्हैं। इसमें मुख ज्वार, बाजरा, मक्का, मूंग, चावल आदि हैं।

१.४.३ सामाजिक परिस्थितियां
हरियाणा एक कृषि प्रधान राज्य है। यहां की 80 प्रतिशत जनसंख्या खेती पर निर्भर है। यहां की भूमि उपजाऊ इसे अनाज की बुखारी के नाम से भी जाना जाता है। यहां के लोग अधिकतर धन-धान्य से संपन्न हैं। यही कारण है यहां प्रति व्श्क्ति आय 10 हजार रुपए है।
हरियाणा के गांव बड़े ही सभ्य ढंग से बसाए गए हैं। गांव में पंचायती-प्रणाली लागू है, जिसके अंतर्गत ग्रामीण पंच-सरपंचों का चुनाव करते हैं। गांव में सार्वजनिक स्थान-चौपाल, स्कूल, मंदिर तथा तालाब होते हैं। परिवार में एक ही मुखिया होता है, जिसकी आज्ञा का पालन सभी परिवारजन करते हैं। गांव में अधिकतर लोग सादा जीवन व्यतीत करते हैं। ग्रामीण लोग धोती, कुत्र्ता, पगड़ी पहनते हैं और औरतें कुर्ता सलवाार एवं घाघरे का प्रयोग करती हैं।
विभिन्न जातियों के लोग निवास करते हैं कि जिनमें मुख्य रूप से जाट ब्राह्मण अहीर, गुजर एवं राजपूत हैं। हरियाणा राज्य में शैक्षिक स्तर 56 प्रतिशत है। सरलता, सहजता, सात्विकता, भोलापन, वीरता एवं मिश्रित उद्दण्डता आज भी हरियाणवी समाज में मलय बने हुए हैं और यहां का जनमानस इनसे गहरे रूप से जुड़ा है।

१.४.४ आर्थिक परिस्थितियां
हरियाणा मुख्यत: कृषि प्रधान देश है। यहां की 80 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर आधारित है। सन् 1966 में हरियाणा में खद्यानों की पैदावार 25.92 लाख टन थी जोकि 1992-93 में बढक़र 102.40 लाख टन हो गई। इसमें 19 लाख टन चावल एवं 71 लाख टन अन्य खाद्य सामग्री का अब तक का सर्वाधिक उत्पादन भी शामिल हैं। हरियाणा का कुल क्षेत्रफल भारत का 1.3 प्रतिशत है जबकि केंद्रीय भंडार को हरियाणा 12 प्रतिशत चावल ओर 25 प्रतिशत गेहूं प्रदान करता है। हरियाणा में अधिकतर भूमि को कृषि योग्य बना दिया गया है। इसके साथ-साथ सिंचाई यातायात तथा कृषि यंत्रों में आधुनिकीकरण करके अपनी पैदावार में उन्नति की है।
उद्योग के क्षेत्र में हरियाणा ने सन् 1966 के बाद आशातीत प्रगति की है। हरियाणा राज्य में देश की 25 प्रतिशत साईकिलों, मोटरसाइकिलों एवं ट्रैक्टरों का उत्पादन होता है। गुडग़ांव में मारूति उद्योग ने विश्व के मानचित्र पर हरियाणा का नाम अंकित किया है। हरियाणा ऐसा पहला राज्य है जहां पर हर गांव में बिजली व पानी का प्रबंध किया गया है। सन् 1966 में हरियाणा में बिजली उत्पादन 343 मैगावाट था जो अब बढक़र 1740 मैगावाट हो गया है। हरियाणा में कुल सडक़ों की लंबाई 22137 किलोमीटर है। इस प्रकार हरियाणा ने अपनी अल्प अवधि में गौरवपूर्ण उपलब्धियां हासिल की है। अब यह प्रांत विकास के नए क्षितिजों को छूने के लिए दृढ़ता से आगे कदम बढ़ा रहा है।

१.४.५ सांस्कृतिक परिस्थितयां
हरियाणा में विभिन्न धार्मिक परंपराएं प्रचलित हैं, परंतु मुख्य रूप से यहां शैव परंपरा प्रचलित है। हरियाणा के प्रत्येक गांव में शिव का मंदिर है। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश में सिद्धों एवं नाथों का भी योगदान रहा है। जिसमें धन्ना, निश्चल एवं गरीबदास इस परंपरा के कवि रहे हैं। आंशिक रूप से यहां पर बौद्ध धर्म का भी प्रभाव मिलता है, किंतु बहूलता शैव धर्म की है।
हरियाणावासी लोक-विश्वासी अधिक हैं। यही कारण है कि यहां पर आज भी विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा-अर्चना होती है। पीपल-पूजन, कुंआ-पूजन आदि के साथ-साथ यहां के लोग भूत-प्रेतों में भी विश्वास रखते हैं। इस प्रदेश में विभिन्न प्रकार के नृत्यों का आयोजन भी किया जाता है। जैसे छठी नृत्य का आयोजन, शिशु के जन्म के छठे दिन किया जाता है। घोड़ा नृत्य का आयोजन मुख्यत: शादी के अवसर पर किया जाता है। छड़ी नृत्य, भादों मास में गूगापीर की पूजा के बाद किया जाता है। फाग नृत्य का आयोजन औरतें फाल्गुन में करती हैं। खोडिय़ा नृत्य का आयोजन लडक़े की बारात जाने के पश्चात घर में स्त्रियों द्वारा किया जाता है। जहां हरियाणावासी विभिन्न नृत्यों का आयोजन करते हैं, वहीं पर विभिन्न प्रकार के संस्कारों में भी यहां के लोग बिश्वास करते हैँ। जैसे नहाणघर में जच्चा को तीन दिन बाद नहलाना, छठी बच्चे के छठे दिन घर में होम करवाना, इसके अतिरिक्त विवाह-सगाई आदि में लगन मेहड़ा, भात, चढ़त, फेरे, विदा आदि संस्कारों का रिवाज है। हरियाणा राज्य में विभिन्न त्यौहार बड़ी धूमधाम से मनाए जाते हैं। जिनमें मुख्य हैं- होली, धुलेहड़ी, तीज, सलोमण, दशहरा, दीवाली, गूगानौमी, भैया दूज, सक्रांत, शिवरात्रि आदि।

१.४.६ साहित्यिक परिस्थितियां
हरियाणा की सरस्वती सिंचित धरती साहित्यिक दृष्टि से चिर उर्वरा है। इसे वेद, महाभारत, पुराण, गीता, आदि पवित्र ग्रंथों की रचना स्थली होने का गौरव प्राप्त है। ज्ञान की धारा एवं साहित्यिक रश्मियों सर्वप्रथम हरियाणा की धरती से फूटकर चारों ओर बही थीं। यही एक मुख्य कारण था कि इन्हीं साहित्यिक रश्मियों के माध्यम से हरियाणा में साहित्यिक परंपरा हर्षवर्धनकाल में प्रारंभ मानी जाती है। इस काल में अनेक ब्राह्मण ग्रंथ एवं वेदों के स्पष्टीकरण हेतु धर्मसूत्र, उपनिषद् मनुस्मृति, महाभारत आदि की रचना की गई। इसके अतिरिक्त हरियाणा में अनेक काव्य धाराएं जैसे जेन काव्यधारा, संत काव्यधारा, सूफी काव्य धारा, वैष्णव भक्ति, काव्य धारा श्रृंगाार काव्यधारा प्रवाहित हुई।

१.५ हरियाणवी भाषा का नामकरण
प्रथम अध्याय में हमने हरियाणा प्रदेश के सक्षिप्त इतिहास, सिंहावलोकन किया है। उसके लोकसाहित्य का सर्वांगीण अध्ययन हमारा मुख्य लक्ष्य है। परंतु हरियाणा प्रदेशीय लोक साहित्य के बीहड़ एवं अद्यावां उपेक्षित वन प्रांत में प्रवेश करने से पूर्व यह अनुपयुक्त न होना कि उस बोल से परिचय प्राप्त कर लिया जाए, जिस बोली की आती है। अत: हमें निम्नलिखित प्रश्रों पर संक्षेप में कुछ गहराई के साथ विचार करना होगा। भारतीय भाषाओं में हरियाणवी का स्थान, नामकरण, क्षेत्र-विस्तार, तथा सामान्य एवं स्थूल व्याकरण आदि।
भाषा के अध्ययन से हमेें एक बात अच्छी तरह देखने को मिलती है कि वाणी और लेखनी की दौड़ में लेखनी कदापि वाणी के साथ कदम से कदम मिलाकर नहीं चल सकी है। वाणी का स्वतंत्र प्रसार और विकास हुआ है और लेखनी बोली को भाषा का रूप दे उसे पंगु बना देती रही है। यह सत्य है कि लेखनी का प्रसाद जिस भाषा को मिला बस, उसकी प्रगति रूक गई उसका विकास धीमा हो गया। उसे साहित्य की गद्दी सिहांसन अवश्य मिली परंतु उसकी अनुप्राणिका शांति क्षीण हो गई। इस दृष्टि से जब हम मध्यदेशीय भाषाओं पर विचार करते हैं तो भाषा-विज्ञान की खोज इस और स्पष्ट संकेत करती है कि विक्रम की नवमी-दशमी शताब्दी में अपभ्रंश भाषाएं साहित्य की सुखदशय्या पर निद्रा-निमीलित हो रही थी और बोल चाल की भाषाएं अपने अपने जनपदों से स्वतंत्र रूप से विकास प्राप्त कर सकती थीं। अपभ्रंश भाषा से अलग-अलग हटती हुई बोलियों का यह स्वतंत्र विकास हमारी आधुनिक आर्य बोलियों का आधार है। हिंदी इस प्रकार मध्यप्रदेश विकसित बोलियों के समुदाय का नाम हैं।
मध्यप्रदेश की शौरसेनी अपभ्रंश से विकसित पांच बोलियां- खड़ी बोली कौरवी, हरियणवी, ब्रज, कन्नौजी और बुंदेली, पश्चिमी हिंदी के नाम पुकारी गई हैं। अद्र्धमागधी अपभ्रंश की तीन बोलियां-अवधी, बघेली और छतीसगढ़ी-पूर्वी हिंदी के नाम से भाषा सर्वे में दी गई है। हमारा आलोक्य बोली हरियाणवी पश्चिमी हिंदी की सबसे पश्चिमी बोली है। डॉ. धीरेंद्र जी वर्मा ने इस बोली को ‘सरहदी’ नाम से पुकारा है। सरहदी से तात्पर्य मध्यदेशीय भाषा बोलियों की पश्चिमी हद की सीमा की बोली से है। यह एक विस्तृत प्रदेश की बोली है। इसका क्षेत्र दिल्ली, करनाल, रोहतक, हिसार, गुडग़ांव जिलों और पड़ोस के पटियाला, नामा और जींद रियासतों के गांवों में फैला पड़ा है।
उपरोक्त विवरण से यह तो स्पष्ट हो गया है कि हरियाणवी बोली भारतीय आर्य भाषाओं की एक प्रमुख बोली है। इस बोली को किसी साहित्य महारथी से लेखनी का प्रसाद नहीं प्राप्त हुआ है। अत: इसके प्राचीनतम रूपों की खोज करना कठिन है। इसमें आज जो साहित्य उपलब्ध है वह केवल गीत घरेलू, गीत, लोक कथाएं, अवदान नाके तथा लोकोक्तियां आदि हैं। इस बोली में मुहावरों की एक अपनी विशेषता है जो श्रोता को एक साथ अपनी ओर आकर्षित कर लेती हैं। इन बोली के मुहावरे बड़े संपन्न एवं अर्थगाम्भीर्य पूर्ण हैं। कथास्थान इनका वर्णन दिया गया है। लगभग पिछले 1050 वर्षों से कुछ ‘संगीत’ की किताबें अवश्य इस बोली में लिखी मिलती है जिनमें भी बोली का शुद्ध रूप नहीं आ पाया है। उर्दू फारसी के विदेशी शब्द जो जनमानस में अपनी पैठ नहीं कर पाए हैं पर्याप्त मात्रा में इन संगीत पुस्तकों में मिलते हैं। स्वतंत्रता आंदोलन को लेकर लिखे गए बहुत से नाटक भी मिले हैं जिनमें शास्त्री तारादत्त हिसार का ‘ग्राम सुधार’ नामक नाटक हरियाणवी बोली का एक सुंदर उदाहरण प्रस्तुत करता है। आर्य समाजी ढंग पर लिखे गए ‘भजन’ भी भजनीक मंडलियों के अखाड़ों में देखने को मिले हैं परंतु इनमें विशुद्ध हरियाणवी बोली न होकर उर्दू, अंग्रेजी के साथ हरियाणवी की खिचड़ी पकाई गई है। फिर भी सांगियों, भजनीकों, एवं नाटक रचयिताओं की यह विकासमान बोली भाषा विज्ञान के विद्यार्थी के लिए अध्ययन की खासी सामग्री जुटाती हैं।
हरियाणवी बोली में ब्रज, अवधी, मैथली, बंगला और भोजपुरी की वह सरसता एवं मधुरता भले ही न मिले परंतु इस बोली के स्वरों के उच्चारण की दीर्घता एवं फैलाव इसकी अपनी वस्तु हैऔर अवश्य ही इसकी विशेषता कही जाएगी। हरियाणा प्रदेश की शक्ति संपन्न जातियों का बलिष्ठ उच्चारण उनकी वाणी के प्रत्येक स्वर ओर व्यंजन से फुटा पड़ता है जो अपनी कर्कशता में भी आकर्षक एवं दीर्घता मे भी मधुर है। आगे का विश्लेषण इस बात को स्पष्ट कर देगा कि इस बोली में कई ध्वनियां बड़ी प्राचीन है और कई अंश ऐसे हैं, जिनमें अपभ्रंशकालीन अवशेष विद्यमान हैं जो शब्दों की प्राचीनता का इतिहास बतलाते हैं। इन्हीं सब प्रमाणों से यह कहा जा सकता है कि हरियाणवी बोली एक प्राचीन बोली है और अपना स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए है।
हरियाणवी बोली को विद्वानों ने कई नामों से अभिहित किया है। यथा- बांगड़, जाटू, बेसवाली या देसारी तथा चमरवा आदि। इनमें से हरियाणवी और बांगड़ दो देश परके नाम है जो हरियाना और बांगड़ देश के नाम पर पड़े हैं। यथा- बंगाली, मराटी, गुजराती आदि। शेष दो नाम जाटू और चमरवा दो जाति-जाट और चमार- के नाम पर है। इन्हीं दो जातियों की प्रधानता के कारण इस बोली में इनके व्यक्तित्व, उच्चारण और संस्करों की छाप है। देसवाली या देसारी भी जाति परक ही है। देसवाल जाटों की भाषा ही यह भाषा है। अन्य जाट बागड़ी है जो बीकानेर की ओर से आए हैं और बागड़ी बोलते हैं। उनकी संख्या नगण्य है ओर उनकी बोली पर
१. डॉ. प्रियर्सन मौजूदा हरियाणवी को खड़ी बोली की हो एक शक्ल मानते हैं। परंतु हरियाणवी खड़ी बोली से अधिक प्राचीन है। यहां तारीख जवान-ए-उर्दू के लेखक डॉ. मसूदहसन का तर्क विचारणीय है कि खड़ी बोली हिंदुस्तानी का अपना मयार स्तर उस वक्ता कायम होता है जब वह एक तरफ पहल, लोट्टा ओर गड्डी हरियानी व कोरवी के बजाए बादल, लौटा और गाड़ी को कबूल करती है और जोरी, लरी लराई ब्रज, आगरा, मथुरा की के बजाए जोड़ी, लड़ी, लगई को कबूल करती है। अत: प्रियस्रन की खोजों के विपरित यह माना जाना चाहिए कि हरियानी खड़ी बोली की एक शक्ल नहीं है, बल्कि इसके विपरीत सभी बोली हरियानी और ब्रज का विकसित रूप है। फिर खड़ी बोली नाम भी तो बहुत पुराना नहीं है। ‘प्रेमसागर’ की भूमिका सम्वत् १७६० के लगभग लल्लूजी लाल ने सर्वप्रथम इसे यह नाम दिया है। देसवाल लाटों की इस बोली का प्रभाव बढ़ रहा है। डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी ने इसे दो नाम दिए हैं- बांगरू ओर हरियानी। डॉ. पीडी गुणे ने केवल एक नाम-बांगरू, हरियानी और जाटू के नाम से पुकारा है। डॉ. मसूद इसन ने भी इसी अनुकरण पर इसे उपरोक्त तीन नाम दिए हैं। केवल डॉ. प्रिर्यसन ने इस बोली को उपरोक्त तीन नामों के अतिरिक्त एक नाम ‘चमरवा’ भी दिया है जो इस बोली के देहली के उन मौहल्लों में प्रचलित होने के कारण जिनमें चमारों की आबादी है, इसे मिला है। परंतु यह नाम प्रचलित नहीं है।
अब तक के विश्लेषण से एक बात स्पष्ट है कि डॉ. पी.डी. गुणे के अतिरिक्त सभी विद्वानों ने इस बोली का बांगरू नाम देकर-जाटू और हरियानी इसके लिए दो नाम ओर दिए हैं। किंतु यह नामकरण डॉ. प्रियर्सन के भाषा सर्वे के आधार पर ही हुआ है। सर्वे के प्रकाशन तक जिले के गजटीयरस ही स्थानीय भाषा और इतिहास जानने के साधन थे। इसलिए करनाल और रोहतक की ऊंची और सुखी भूमि जो बांगड़ कहलाती है, उसकी भाषा बांगरू कहलाई और इस प्रदेश में जाटों की अधिक आबादी होने के कारण वही भाषा जाटू भी कहलाई। हिसार जींद जिलों के हरियाना खंड की भाषा हरियानी के नाम से पुकारी गई। अत: दो भूभागों के नाम पर दो नाम भाषा को मिले- बांगड़ खंड के नाम पर बांगरू और हरियाना खंड के नाम पर हरियानी। इन दोनों खंडों में जाटों की अधिक संख्या होने के कारण उसे जाटू नाम भी दिया गया। परंतु यह कल्पना उपयुक्त नहीं प्रतीत होती। खोज से पता चलता है कि हरियाना और बांगर की सभी जातियां-बावरिया आदि एक-दो नीची जातियों को छोड़ कर एक की बोली बोलती हैं। न्यूनाधिक भेद है अवश्य, परंतु वह स्थानीय प्रभाव के कारण है और नगण्य हैं। दूसरे देश के नाम पर ही बोलियों के नाम होते हैं परंतु प्रियर्सन की जाटू और अहीरी अपनी निराली खोज है जो संसार के भाषा चित्र में दूर से खटकती है। अत: जाटू नाम अनावश्यक मालूम पड़ता है। बांगरू नाम भी इस भाषा के लिए देना ठीक नहीं है क्योंकि जिस बोली का विवेचन इमारा लक्ष्य है वह बांगर के बाहर भी बोली और समझी जाती है।-पूर्व की और भी पश्चिम की और भी। फिर बांगर नाम भी जातिवाचक है। कोई भी ऊंची एवं सूखी भूमि बांगर के नाम से भूगोल-शास्त्र में पुकारी जाती है। इस प्रकार बांगर खंड कई हो सकते हैं ओर सब बांगर खंडों की बोली बांगरू कहलाएगी। भूगोल के अध्ययन से ज्ञात होता है कि जैसी ऊंची और सुखी भूमि करनाल व रोहतक जिले की है वैसी ही बलिया जिला उत्तरप्रदेश में ऊंची और सुखी भूमि है। उसे भी बांगर नाम अतिव्याप्त हो जाएगा। अत: हम स्पष्टता के लिए इस बोली को हरियानी बोली के नाम से पुकारेंगे। आज हरियाणे की परिसीमाएं खोजकर निश्चित की जा सकी हैं। इस विस्तृत प्रदेश की भाषा, परंपरा एवं रीति-रिवाज प्राय: सब स्थानों पर एक से हैं, अत: हरियाणे की बोली को हम हरियाणवी नाम से अभिहित करेंगे ओर बांगरू को हरियाणवी की उपबोली मानेंगे।
१.५.१ हरियाणवी का क्षेत्र विस्तार
हरियाणा प्रदेश कई भाषा बोलियों का संधि स्थल है। एक ओर यह प्रदेश पटियाला पेप्सू राज्य के क्षितिज से सटा हुआ है और दूसरी ओर राजस्थान, अहीरवाल, ब्रज और कुरु प्रदेश की सीमाओं को छूता है। इसलिए हरियाणवी की भाषा पट पूर्वी पंजाबी, बीकानेर की बागड़ी, राजस्थान की मेवाती और अहीरवाल की अहीरवाटी बोली, ब्रजबोली और कुरु प्रदेश की खड़ी बोली के धागों से निर्मित है। हरियाणवी लगभग ६००० वर्गमील में फैली हुई बोली है। इसकी सीमांत रेखाएं किसी एक प्रांत की राजनैतिक सीमाओं से संबंद्ध नहीं है। हरियानी के प्रधान केंद्र रोहतक, महम, हांसी, दादरी, दुजाना ओर नरवाना है। हांसी, रोहतक और महम की बोली आदर्श हरियाणवी मानी जाती है। डॉ. मसूद हसन के संगम पर स्थित है अत: भाषा का स्टेंडर्ड एक दीर्घकाल तक स्थिर नहीं हो सका। परंतु मीर अब्दूल वासै हांसयी की गराबबुललुगात हिंदी में विदेशी शब्दों का कोष की रचना के पश्चात् हम कह सकते हैं कि हांसी के इर्द-गिर्द की हरियाणवी बोली स्टेंडर्ड की मानी जाने लगी थी। हरियाणवी बोली बोलने वालों की संख्या १६३१ की जनगणना के अनुसार २२ लाख थी।


१.५.२ हरियाणवी की समीपवर्ती बोलयों से पार्थक्य
भाषा बोलियों में सदैव आदान-प्रदान चलता रहता है। भाषाएं अपनी पास-पड़ोस की बोलियों से बहुत कुछ सीखती चलती हैं। इसके प्रतिफल या शुल्क में भाषाएं भी बोलियों पर पर्याप्त प्रभाव छोड़ती हैं। अत: पास-पड़ोस की बोलियों में भी चाहे वे एक ही उद्गम की क्यों न हो स्थान, स्थिति, जल-वायु से उच्चारण एवं मूल ध्वनियों में अंतर आ ही जाता है। कभी-कभी तो वह अंतर इतना स्पष्ट होता है कि उन बोलियों को एक ही जननी के दो सहोदराएं कहते भी संकोच होता है। उनके रूप आदि सब परिवर्तित हो जाते हैं। अगले पृष्ठों मे हम देखेंगे कि हरियाणवी का अपनी अड़ोस-पड़ोस की बोलियों से कितना साम्य अथवा वैषम्य है।
१.५.२.१ हरियाणवी और पंजाबी
हरियाणवी पर सबसे अधिक प्रभाव पंजाबी और राजस्थानी का है। यों तो ब्रज और कौरवी भी समीपवर्ती बोलियां है किंतु पारस्परिक एवं अन्योन्य: प्रभाव जाननेके विचार से पहले हम पंजाबी के साथ मिलान करेंगे:-
हरियाणवी ओर पंजाबी बोलियां बहुत सी बातों से समान है। ध्वनि तवराघत और ध्वनि परिवर्तन आदि बातें दोनों में प्राय: एक-सी है। यथा:-
१. दोनों में पुल्लिंग चिन्ह ‘ई’ का इतना अधिक प्रचार है कि कृदंत क्रियाओं और विशेषणों के साथ ही लगाए जाते हैं। यथा:- हरियाणवी-छोरा दौडय़ा: छौरी दौडय़ी। पंजाबी-मुंडा दौडय़ा: कुड़ी दौडय़ी। मां बोल्ली, बाबू बोल्ला, लील्ली घोढ़ी, चिट्टी धोती लील्ला घोड़ा का अत्वार चिट्टा कापड़ा आदि।
२. दोनों में सकर्मक क्रियाओं के भूत कृदंतों से बनी हुई क्रिया केवल कर्मवाच्य अथवा भाववाच्य में प्रयुक्त होती है। यथा- राम ने पेसा दिया, (पंजाबी) दित्ता: मन्ने इकन्नी दी। इन दो वाक्यों में ‘दिया’ (दित्ता) ‘दी’ इन क्रियाओं के वाच्य पैसा और इकन्नी है जो ‘दिया’ (दित्ता) और दी इन क्रियाओं के कर्म हैं। कर्म प्रयोग की विशेषता यह है कि क्रिया के कृदंत अंश का लिंग और वचन इसके कर्म के लिंग और वचन के अनुसार होता है। क्रिया के कृदंत भी इस प्रकार के विशेषण ही है ओर इनका विशेषण प्रयोग बड़ा पुराना है। वैदिक भाषा में भी ऐसे प्रयोग मिलते हैं। जिस प्रकार विशेषण का लिंग और वचन विशेष्य के अनुसार होता है। इसी तरह का कृदंत लिंग और वचन भी वाच्य के अनुसार होता है। भावे प्रयोग के सकर्मक धातु ‘कर्मकर्तृ प्रक्रिया’ के रूप में आती है, यथा-राम ने आंगली तोड़ दी। राम ने आंगली के तोड़ दी आंगली आपेह टूटगी आदि।
३. विशेष्य-विशेषण प्रयोग में-विशेषण विशेष्य का विशेषक होता है और विशेषण विशेष्य से पहले आता है। यथा- काला घोड़ा चिट्टी धोती, विशेष विशेषण प्रयोग में विशेषण ही विधेय होता है। यथा- घोड़ा काला है। दोनों बोलियों में एक-सा प्रयोग मिलता है।
४. विकारी कारकों के बहुवचन के रूप में ‘आ’ लगने से बनाए जाते हैं। यह प्रक्रिया दोनों बोलियों-हरियानी, पंजाबी में समान है जबकि साहित्यिक हिंदी में अंतर है। हिंदी में सब शब्दों के विकारों कारकों के बहुवचन ‘ओ’ से बनाए जाते हैं अथवा उनके अंत में ‘ओ’ होता है ‘यथा’-
पंजाबी हरियाणवी बहुवचन बहुवचन
कर्तृकारक विकारी कारक कर्तृ कारक विकारी कारक
मुंडे मुंडेआं माणस माणसां
डाक्कू डाक्कूआं खेत खेतां
‘खेतां की रखवाली बै_ा सूं’
छुरीआं छुरीआं छोर्या छोर्आं
साहित्य हिंदी बहुवचन
कर्तृकारक विकारी कारक
लडक़े लडक़ों ने
माली मालियों ने, से, पर
बालक बालकों ने
नदी नदियों पर
माता माताओं पर
बहु बहुओं आदि
५.स्वराघात:- स्वराघात का प्रयोग प्राय: दोनों में एक जैसा होता है:-
क. द्वयक्षर वाले शब्दों के यदि दोनों अक्षर स्वर वाले हो तो स्वराघात प्रथम अक्षर पर होता है। यथा: हाथी
झोली, डोली, माली आदि।
ख. व्यक्षर वाले शब्दों के यदि अंत के दोनों अक्षर दीर्घ स्वर वाले हों तो स्वराघात प्राय: मध्यम अक्षर पर होता है। यथा:- बिटोड़ा पुराणा आदि।
ग. प्रेरणार्थक धातु के (क्रिया के) अंतिम अक्षर पर ही स्वराघात होता है। यथा:- करा, जगा, हटा लिखवाओं आदि।
घ. द्वयक्षर वाले शब्दों का अंतिम अक्षर यदि दीर्घ स्वर वाला हो ओर स्वराघात मुक्त भी हो तो उससे पहले अक्षर हस्व स्वर वाला होता है। यथा:- टका, मटा, शुदा आदि।
६. स्वर से आरंभ होने वाले शब्दों से पहले दोनों भाषाओं में कई बार ‘हकार’ का आगम होता है। यथा:-
संस्कृत प्राकृत पंजाबी व हरियाणवी
ओष्ठ ओ_ होंट, होट
अस्थि अ_ि हड्डी
अरघट्ट हरअट्ट हरट
रहट (अक्षर विपर्यय से)
६. कर्ता और संप्रदान का क्रम से ‘नै’ और ‘नूं’ कारक प्रत्यय पंजाबी में मिलता है। हरियाणवी का ‘नै’ प्रत्यय दोनों कारकों के लिए समाज रूप से व्यवहृत है जबकि खड़ी बगोली में ‘नै’ का ने रूप के केवल कर्ता के लिए रह गया है। यथा:- राम ने मारा।
दोनों में इतना साम्य होने पर भी कई स्थानों पर बड़ा भेद है। उस भेद को परखने का प्रयत्न निम्रलिखित पंक्तियों मे किया जाएगा।
१. इन दोनों बोलियों की कई ध्वनियां में पर्याप्त भेद है। इसी ध्वनि के भेद के कारण एक बोली को जानने वाले व्यक्ति के लिए दूसरी बोली के समझने में कठिनाई होती है और कभी-कभी समझ में नहीं आती।
मूल ध्वनियों में भेद- घ, झ, ठ, घ, थ, भ का उच्चारण दोनों में भिन्न है। इनके पंजाबी उच्चारण में ह् की ध्वनि बहुत मंद होती है और प्राय: सुनाई नहीं पड़ती। एक पंजाबी सिक्ख जब भ्राता शब्द का उच्चारण करता है तो आदि भ्रा की ध्वनि ‘आ’ या ‘प्रा’ की सी होती है। वही सिक्ख ‘घर’ को ‘कहर’ इस तरह उच्चारण करता हे कि ह की अति सूक्ष्म ध्वनि सुनाई पड़ती है। धरती शब्द ‘दैरती’ जैसी सुनाई पड़ती है। हरियाणवी में इन ध्वनियों की ज्यों की त्यों स्थिति है। इस बोली ने चौड़ाव या फैलाव के गुण के कारण ध्वनियों का एक विशेष स्थान है।
हिंदी की ढेर ध्वनि पंजाबी और हरियाणवी में नहीं मिलती। इसके लिए स्थान ‘ढ’ हो जाता है। ‘ढ’ की भी वही दशा है। उसके स्थान ‘ड’ हो जाता है। यथा:-
(हिंदी) पढऩा (हरियानी पंजाबी) पढऩा (अध्ययन)
(हिंदी) पडऩा (हरियानी पंजाबी) पडऩा(गिरना)
यह ‘ड’ सदैव ही हरियाणवी में ‘ड’ हो जाता है कि जबकि पंजाबी में इसके दोनों यह ‘ड’ रूप ‘ड’ मिलते हैँ। यथा जेड़ा (जिस), उडा दिता (समाप्त करना) आदि।
मूद्र्धन्य ‘ल’ हरियाणवी की अपनी विशेषता है। इसी प्रदेश से यह ध्वनि उत्तर भारत में फैली है। पंजाबी में भी मिलती है। यहां ‘काला घोड़ा’ के स्थान पर ‘काला घोड़ा’ बोला जाता है। इसी प्रकार ‘ण’ बहुल प्रयोग दोनों बोलियों में होते हैं। यथा:- हरियाणा, ‘खाणा’ जाणा, पंजाबी में हुण आदि।
१. ध्वनि परिवर्तन- पंजाबी में संस्कृत के हृस्व स्वर के पीछे आने वाले संयुक्त व्यंजनों में द्वित्व दिखाई देता है। और पूर्ववर्ती हृस्व स्वर स्थिर रहता है, वहां हरियाणवी में द्वित्य के स्थान में एक ही व्यंजन रह गया है और प्रतिकार में पूर्ववर्ती स्वर दीर्घ हो गया है। यथा:-
संस्कृत पंजाबी हरियाणवी
लक्ष लक्ख लाख
हस्त हत्य हाथ
मस्तकं मत्था माथा
शुष्क सुक्खा सूखा
कर्म कम्म काम
यह द्वित्य प्रवृति पंजाबी की अपनी विशेषता है और खड़ी बोली के संपर्क में रहने वाले व्यक्तियों का ध्यान अचानक अपनी ओर आकर्षित करती है।
३. हरियाणवी में हिंदी की भांति संस्कृत ‘क्त’ प्रत्यय के ‘त’ का सदैव लोप हो जाता है। पंजाबी में इसका लोप विकल्प से होता है। यथा-
संस्कृत हरियाणवी हिंदी पंजाबी
दत्त दिया दित्ता
सुप्त सोया सुत्ता
गत गया गया (गत्ता नहीं)
कृत किया कीत्ता
४. पंजाबी के विशेषण में विकास संज्ञा की नाईं होता है यह प्रकृति स्त्रीलिंग बहुवचन में बड़ी स्पष्ट दिखलाई देती है। वहां विशेष्य (संज्ञा) की भांति विकार हो जाता है। हरियानी या हिंदी में यह बात नहीं पाई जाती।

पंजाबी
एकवचन बहुवचन
चिट्टी धोती चिट्टीआं धोतीआं

हरियाणवी या हिंदी
काली धोती काली धोत्तियां
(काली धोतीआं नहीं)
पुल्लिंग बहुवचन में दोनों में विकार होता है।
एकवचन बहुवचन
पंजाबी मोट्टा घोड़ा मोट्टे घोड़े
हरियाणवी मोटा घोड़ा मोटे घोड़े
पंजाबी हरियाणवी
वैर बैर
विरोध बिरोध
वाट बाट (पगडंडी)
वारी बारी (खिडक़ी)
वर्गा बर्गा (सदृश)
(तेरे बर्गी हूर मिलैना भइय्या की सूं)
वेचणा बेचणा
विरला बिरला आदि
६.पंजाबी से हरियाणवी में एक अंतर और है। संबंध कारक का चिह्न पंजाबी में ‘दा’ है जबकि हरियानी में इसके स्थान पर ‘का’ का प्रयोग किया जाता है। खड़ी बोली हिंदी में भी यही प्रयोग है। ‘दा’ का प्रयोग पंजाबी की अपनी विशेषता है जो दूर से चमकती है। यथा:-
पंजाबी हरियानी
चाच्चे दा मुण्डा चाचा का छोरा
भ्राता दी हट्टी भ्राता की दुकान
७. व्यक्तिवाचक सर्वनामों के उत्तम पुरूष और मध्य पुरूष के रूपों में बड़ा अंतर है। हरियाणवी में यु रूप तुम (तम) और हम है और पंजाबी में असीं और तुसीं (तुसां) है। पंजाबी के ये सर्वनाम प्राचीन लहंदा के अवशेष हैं।

१.५.२.२ हरियाणवी और राजस्थानी
पंजाबी और हरियाणवी के मर्म को समझकर अब हम राजस्थानी की ओर बढ़ते हैं। हरियाणवी पर राजस्थानी का प्रभाव कई रूपों में दृष्टिकोण से राजस्थानी से पर्याप्त समय रखती है। उदाहरणों से पाठक सरलतया समझ जाएंगे।

उच्चारण
१. हरियाणवी की भांति राजस्थानी में भी ‘ल’ का उच्चारण दंत्य और मूद्र्धन्य दोनों प्रकार का मिलता है। आजकल प्राय: मृर्धन्य ‘ल’ को दंत्य ‘ल’ लिखने की प्रवृति बल पकड़ रही है परंतु यह भाषा-शास्त्र की दृष्टि से एक हानि है। जिन शब्दों के आदि अथवा मध्य में मूद्र्धन्य ‘ल’ आता है। बहुधा उस ‘ल’ को दंत्य कर देने से अर्थ में यद्यपि कोई विशेष अंतर नहीं पड़ता, क्या- काला और काला में तथापि उच्चारण की अशुद्धि तो माननी ही पड़ेगी। परंतु बहुत से मूद्र्धन्य ‘लकारांत’ शब्द ऐसे भी है जिनका दंत्य लकारांत कर देने से उनका अर्थ बिल्कुल बदल जाता है। यथा:-
शब्द अर्थ शब्द अर्थ
पाल बांध पाल बिछोने का कपड़ा
माली जाति विशेष माली आर्थिक(फारसी)
महल स्त्री महल राजप्रसाद
खाल परनाला खाल चमड़ा
(बहाव)
२. इन दो बोलियों में ‘ष’ का उच्चारण ‘स’ होता है और ’श’ का भी ‘स’ होता है। कहीं-कहीं पर ‘ष’ का उच्चरण ‘ख’ से होता। प्राय: राजस्थानी में ऐसा होता है। यथा-
संस्कृत हरियाणवी राजस्थानी
वर्ष बरस बरस
वर्षा बरसा बरसा, बरखा
भीष्म भीसम भीसम
शेष सेस सेस
केश केस केस ‘खार करूं सिर के’-मीरा
दुश्मन दुसमन दुसमन
क्षीण छीन खीण
-यहां हरियाणवी में ‘ष’ का छ हो गया है जबकि राजस्थानी में ‘ख’ हुआ। यथा- ’घूंघट में गोरी जलै खीन पुरस की नार’
३. हरियाणवी और राजस्थानी दोनों में ‘य’ का उच्चारण ‘ज’ और ‘य’
इसका उच्चारण प्राय: ‘ज’ किया जाता है और ‘ज’ ही लिखा जाता है। परंतु जब ‘य’ शब्द के पहले अक्षर के पश्चात आता है तब वह अविकृत अवस्था में रहता है यथा-
आदि यकार मध्य यकार या अन्य यकार
युद्ध-जुद्ध काया
यात्रा-जात्रा माया
यमराज-जमराज और जाया आदि
वर्णागम और वर्ण प्रत्यय
1. हरियाणवी में ‘ऋ’ के स्थान में ‘रि’ सुना और लिखा जाता है। यह प्रवृति राजस्थानी में भी है। कहीं-कहीं राजस्थाानी में मृल रूप में भी मिलता है। यथा:-
ऋषि रिसी
ऋतु रितु
स्मृति समृति-राजस्थाानी में
२. हरियाणवी में ‘रेफ’ का प्रयोग नहीं होता। यह रेफ पूरे ‘ रकार’ में बदल जाता है। राजस्थानी में इसका स्थानांतरित रूप भी प्रयोग में है। यथा:-
हरियाणवी राजस्थानी
संस्कृत व राजस्थानी में राजस्थानी प्रयोग
वर्ण वरन
दुर्लभ दुरलभ
धर्म धरम धर्म ध्रम
कर्म करम कर्म क्रम आदि
३. हरियाणवी और राजस्थानी में सुखोच्चारण के लिए शब्द के आरंभ में कभी-कभी कोई स्वर जोड़े देते हैं, जिसे स्वरागम कहते हैं। यथा:-
हरियाणवी राजस्थानी
रथ अरथ थांणा आथांण
सवार(असवार) रण आरण आदि
(असवार) यथा:-
लीली के असवार आदि
४. इन दोनों बोलियों में ‘स’ का ‘छ’ और ‘व’ का ‘म’ हो जाता है। यथा-
‘स’ का ‘छ’ ‘व’ का ‘म’
सुदामा छुदामा सावन सामण, सामन(मास)
तुलसी तुलछी रावण रामण
सभा छभा सुहावणो सुहामणो
५. इन दोनों भाषाओं में णकार बहुला प्रवृति पाई जाती है। नकरांत शब्द प्राय: णकरांत कर लिए जाते हैं। यथा:-
कहना कहणा
गहना गहणा
रानी राणी
जीवन जीवन आदि
६. राजस्थानी में अकांरति पुल्लिंग तथा अकरांत स्त्रीलिंग शब्दों का बहुवचन अत्यंत स्वर में ‘आ’ लगाने में बनता है। यही प्रवृति हरियाणवी में भी मिलती है। यथा:- नर नरां, खेत, खेतां, रात रातां, आंख आंखा, ‘आंखां नै क्यूं फोड़ै सै’-
राजस्थानी के आकारांत ईकारांत और ऊकारांत शब्दों के बहुवचन दरियानी और खड़ी बोली से प्राय: नहीं मिलते। यथा:-
हिदंी हरियाणवी राजस्थानी
एकवचन बहुवचन बहुवचन बहुवचन
घोड़ा घोड़े घोड़ां घोड़ां
घोड़ी घोडिय़ां घोडि़आं घोडिय़ां
बहू बहूएं बहूआं बहवां
६. दोनों बोलियों में छुटपन लाने के लिए अथवा प्रेम प्रदर्शन के लिए अपभ्रंश की भांति संज्ञाओं के अंत में ‘ड़ा’ ‘ड़’ जोड़ते हैं यथा:-
गौरी (सुंदरी) गोरड़ी (अधिक सुंदरी, एकखास सुंदरी)
छोरी(लडक़ी) छोरड़ी (अप्रधनता द्योतन के लिए)
उपरोक्त विवरण से यह सजह ही अनुमान लगाया जा सकता है कि हरियाणवी और राजस्थानी में पर्याप्त साम्य है। इस भ्रम के लिए भी स्थान हो सकता है कि हरियाणवी राजस्थानी का प्रभाव अवश्य पड़ा है और यह कोई दोष भी नहीं है। भाषाएं सभी एक-दूसरी से लेती देती रहती है। फिर इन दोनों बोलियोंकी कारक प्रक्रिया, क्रियाएं, सर्वनाम और क्रिया विशेषण आदि में प्रचुर परिणाम में वैषम्य है। राजस्थानी का व्याकरण उसे अपनी पड़ोसी बोलियों से जुदा कर देता है। परंतु भाषा-विज्ञान के दृष्टिकोण से यह वैषम्य कोई चिंता का द्योतक नहीं है। इस वैषम्य में भी एक साम्य के दर्शन भाषा-शास्त्री को होंगे। कारण कि राजस्थाानी स्वयं अंर्तवर्ती है। डॉ. प्रियर्सन ने भाषाओं का विभाजन उच्चारण और व्याकरण के आधार पर किया है। उच्चारण क्षेत्र में इन दोनों बोलियों में बहुत कुछ समानता है किंतु व्याकरण भिन्न है। हरियाणवी के व्याकरण का वर्णन हम आगे चलकर विस्तार से करेंगे। राजस्थानी के व्याकरण पर दृष्टिपात करना इस लेख का विषय नहीं है।

१.५.२.३ हरियाणवी और ब्रज
हरियाणवी और ब्रज पश्चिमी ङ्क्षहदी की शाखाएं हैं और इन दोनों बोलियों की सीमाएं भी एक दूसरी से मिलती है। इस विचार से इन दोनों में पर्याप्त साम्य की अपेक्षा की जा सकती है किंतु वैषम्य के लिए भी स्थान है।
उच्चारण की दृष्टि से इन दोनों में कोई विशेष उल्लेखनीय अंतर नहीं है। इस ब्रज में मूर्धन्य ‘ण’ ‘ड़’ ‘ल’ का प्रयोग नहीं होता है जो इन दोनों बोलियों के खड़ापन और पड़ापन का कारण है। यथा- हरियाणवी-खाणा, ब्रज में खाना और हरियानी में सडक़ ब्रज में सरक बोली जाती है आदि। ब्रज में दत्य लकार के स्थान पर भी ‘रकार’ हो जाता है। यथा-बादर, मतबारो, करडारो आदि में रकार ही सुनाई पड़ता है। ‘श’ के स्थाान पर ‘स’ ‘य’ के स्थान में ‘ज’ तथा आदि वकार को बकार प्रवृति दोनों में एकसी है। विशेष विवरण अधोगत है:-
१. सर्वनाम
अ. उत्तम पुरूष एक वचन मे ब्रज में ‘मैं’ और ‘हौं’ दोनों का प्रयोग होता है। हरियाणवी में हौं का प्रयोग नहीं होता। ब्रज का कर्म ‘मो’ और मोहे हरियाणवी में ‘मुझे’ और ‘मन्ने’ हो जाता है। यथा- ‘मन्ने के व्यौरा भई’ (हरियाणवी) मोका पतो (ब्रज)
आ. मध्यम पुरूष (एकवचन व बहुवचन) ब्रज में ‘तो’ ‘तौं’ के साथ-साथ ‘तें‘’तैं’ भी आते हैं। हरियाणवी में ‘तें’ ‘तैं’ मिलते हैं। हरियाणवी के ‘तेरा‘ और ‘थारा’ ब्रज में ‘तेरो’ और ‘तुम्हारो’ हो जाता है। ब्रज में इसके दूसरे रूप ‘तिहारो’ और ‘तिहारी’ भी मिलते हैं। ‘जाएगी लाज तिहारी।‘ हरियाणवी के ‘थमै’ की जगह ‘ तुम्हौ’ ‘म्हारा’ के स्थान में ‘हमारौ’ और ‘मेरा’ की जगह ब्रज में ‘मेरो’ मिलते हैं।
२. वचन
संज्ञा का बहुवचन हरियाणवी में पंजाबी, दक्खिनी और राजस्थानी की भांति ‘आ’ लगानो से बनता है जैसा कि उपरोक्त उदाहरणों से व्यक्त है। ब्रज से बहुवचन ‘न’ के योग से होता है।
हरियाणवी ब्रज
एकवचन बहुवचन एकवचन बहुवचन
घोड़ा घोड़ां घोड़ो घोडऩ
३. क्रिया
ब्रज मे क्रिया का साधारण रूप धातु रूप धातु मेंं ‘वो’ ‘वो’ या ‘नो’ की वृद्धि से बनाया जाता है। हरियाणवी में यह रूप ‘णा’ या ‘ण’ के द्वारा बनता है। ब्रज की धातुएं-करिबो, होबो, बूझबो, खाबो, चलनो, करनो आदि हरियानी धातुएं- करणा, होणा, खाणा, जाणा, कहणा, जाणा आदि (जाण लगा रहा सूं आदि)।
सामान्य वर्तमाान या हेतुहेतुमदभूत (फेलमुजारा) बनाने के लिए ब्रज में धातु के ‘अत’ लगाया जाता है। हरियानी में खड़ी बोली की भांति ‘ता’ लगता है। यथा, ब्रज-करत,परत,जात, खात आदि।
हरियानी-करता,जाता, खाता आदि।
ब्रज में भूतकाल हरियाणवी की भांति मारा या मार्या नहीं बनता वरन मारो या मार्यो होता है। यथा- ब्रज- तोकू कौन नै मारो
हरियानी-तन्ने कन्ने मार्या।
ब्रज में भविष्यत् ‘गो’ के लगाने से बनाया जाता है। यही काल ‘हौं’ की वृद्धि से भी बनता है। यथा, ब्रज-मिलूंगो, खाऊंगो, राखूंगो, चलिहौं, करिहांै। हरियाणवी में इसके विपरित-सांगा, करांगा, चलांगा, इब्बै चलांगा
(अभी चलते हैं) आदि में ‘गो’ लगाने से बनता है।
सहायक क्रिया के वर्तमान काल में ही हरियाणवी में ‘से’ ‘सूं’ आदि रूप आते है। ब्रज ब्रज में हिंदी खड़ी बोली की भांति है क विभिन्न रूप प्रयोग में लाए जाते हैं। ब्रज में ‘हूं’ का उच्चारण ‘हौं’ हो जाता है। यथा जाता हौं बाबू, (ब्रज) ‘जांऊ सू’ हरियाणवी (मैं जाता हूं) हरियानी में भूतकाल के लिए ‘था’ के भिन्न रूप काम में लाए जाते हैँ। ब्रज में ‘हौं’ और ‘हतौ’ के रूप प्रयोग में आते हैं।
तु कड़ै गया सै ? (हरियानी)
तु कहां गयो हौ ? (ब्रज)
इस प्रकार हम देख सके हैं कि दोनों बोलियां एक सीमा पर मिलती हुई भी कितनी भिन्न है।

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