Saturday, December 10, 2011
सोशल साइट्स पर पाबंदी अनुचित
दूरसंचार
मंत्री कपिल सिब्बल ने सोशल साइट्स पर पाबंदी लगाने का बयान देकर नई बहस
छेड़ दी है। सोशल साइट्स को सेंसर करना आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता छीनने
जैसा है। पढ़ी-लिखी आबादी का बड़ा वर्ग इन साइट्स पर वीडियो, तस्वीरें,
विचार, संदेश आदि एक दूसरे से शेयर करते हैं। ये संदेश कितने लोगों से
संबंध रखते हैं इसकी गिनती करना भी संभव नहीं है।
सवाल यह है कि पहले कभी सोशल साइट्स को सेंसर करने की बात नहीं की गई। फिर अब अचानक इसकी क्या आवश्यकता पड़ गई? दूरसंचार मंत्री के मुताबिक सोशल साइट्स पर अश्लील व आपत्तिजनक सामग्री को दिखाया जाता है। अगर ऐसा है भी तो पहले से ही काननू मौजूद हैं। ऑनलाइन मानहानि, अश्लील इलेक्ट्रोनिक जानकारी के प्रसारण व प्रकाशन पर रोक आदि दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखे गएहैं। 11 अप्रैल 2011 से तो सूचना प्रौद्योगिकी कानून भी लागू हो चुका है। इसके तहत किसी भी मीडिया कंपनी को अश्लील या आपत्तिजनक सामग्री मिलती है तो उसे 36 घंटे में हटाना अनिवार्य किया हुआ है। इतने प्रावधान होने के बाद भी साइट्स को सेंसर करना अनुचित है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने भी सोशल साइट्स पर पाबंदी को अनुचित बताया है।
सोशल साइट्स को सेंसर करने का सरकार का कदम आपातकाल की याद दिलाता है। अभिव्यक्ति पर रोक 1975 से 1977 तक आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने लगाई थी जिसके परिणाम मीडिया और राजनीति अच्छी तरह से जानते हैं और झेल भी चुके हैं।
किसी भी प्रकार की अनुचित, अश्लील, भड़काऊ या अपमानजनक सामग्री का प्रकाशन या प्रसारण दोनों ही खतरनाक हैं। देशहित में ऐसी सामग्री पर रोक लगाना उचित है। लेकिन प्रसारण की पूरी व्यवस्था पर पूरी तरह रोक लगाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।
देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी आदि को लेकर यूपीए सरकार के खिलाफ गहरा रोष है। कांग्रेस को साइट्स पर विचारों के संप्रेषण से कोई एतराज नहीं बल्कि ऐतराज तो सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर की जा रही टिप्पणियों से है।
सोशल साइट्स पर किसी व्यवस्था के खिलाफ विचार या संदेश व्यक्त करना ठीक वैसे है जैसे धरना अथवा प्रदर्शन कर किसी के खिलाफ विरोध दर्ज कराना। अगर सरकार लोगों से उनका अधिकार छीन लेगी तो बाकि अधिकारों को देना और ना देना लगभग एक जैसा हो जाएगा।
इस मुद्दे का एक अन्य पहलू यह भी है कि साइट्स को सेंसर करने का मामला प्रेक्टिकल रूप सें अव्यवहारिक है। दुनिया भर में सोशल साइट्स का संचालन करने वाली कंपनियां अकेले भारत में क्यों सेंसर करेंगी? सबसे बेहतर कदम सेल्फ-सेंसरशिप है। इंटरनेट यूजर्स सावधानी से सोशल साइट्स का प्रयोग करें और किसी भी तस्वीर, संदेश, विचार आदि शेयर करने से पहले सोचें की इससे किसी की भावनाएं आहत तो नहीं हो रही।
सवाल यह है कि पहले कभी सोशल साइट्स को सेंसर करने की बात नहीं की गई। फिर अब अचानक इसकी क्या आवश्यकता पड़ गई? दूरसंचार मंत्री के मुताबिक सोशल साइट्स पर अश्लील व आपत्तिजनक सामग्री को दिखाया जाता है। अगर ऐसा है भी तो पहले से ही काननू मौजूद हैं। ऑनलाइन मानहानि, अश्लील इलेक्ट्रोनिक जानकारी के प्रसारण व प्रकाशन पर रोक आदि दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखे गएहैं। 11 अप्रैल 2011 से तो सूचना प्रौद्योगिकी कानून भी लागू हो चुका है। इसके तहत किसी भी मीडिया कंपनी को अश्लील या आपत्तिजनक सामग्री मिलती है तो उसे 36 घंटे में हटाना अनिवार्य किया हुआ है। इतने प्रावधान होने के बाद भी साइट्स को सेंसर करना अनुचित है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने भी सोशल साइट्स पर पाबंदी को अनुचित बताया है।
सोशल साइट्स को सेंसर करने का सरकार का कदम आपातकाल की याद दिलाता है। अभिव्यक्ति पर रोक 1975 से 1977 तक आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने लगाई थी जिसके परिणाम मीडिया और राजनीति अच्छी तरह से जानते हैं और झेल भी चुके हैं।
किसी भी प्रकार की अनुचित, अश्लील, भड़काऊ या अपमानजनक सामग्री का प्रकाशन या प्रसारण दोनों ही खतरनाक हैं। देशहित में ऐसी सामग्री पर रोक लगाना उचित है। लेकिन प्रसारण की पूरी व्यवस्था पर पूरी तरह रोक लगाना किसी भी दृष्टिकोण से उचित नहीं है।
देश में भ्रष्टाचार, महंगाई, बेरोजगारी आदि को लेकर यूपीए सरकार के खिलाफ गहरा रोष है। कांग्रेस को साइट्स पर विचारों के संप्रेषण से कोई एतराज नहीं बल्कि ऐतराज तो सोनिया गांधी और प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर की जा रही टिप्पणियों से है।
सोशल साइट्स पर किसी व्यवस्था के खिलाफ विचार या संदेश व्यक्त करना ठीक वैसे है जैसे धरना अथवा प्रदर्शन कर किसी के खिलाफ विरोध दर्ज कराना। अगर सरकार लोगों से उनका अधिकार छीन लेगी तो बाकि अधिकारों को देना और ना देना लगभग एक जैसा हो जाएगा।
इस मुद्दे का एक अन्य पहलू यह भी है कि साइट्स को सेंसर करने का मामला प्रेक्टिकल रूप सें अव्यवहारिक है। दुनिया भर में सोशल साइट्स का संचालन करने वाली कंपनियां अकेले भारत में क्यों सेंसर करेंगी? सबसे बेहतर कदम सेल्फ-सेंसरशिप है। इंटरनेट यूजर्स सावधानी से सोशल साइट्स का प्रयोग करें और किसी भी तस्वीर, संदेश, विचार आदि शेयर करने से पहले सोचें की इससे किसी की भावनाएं आहत तो नहीं हो रही।
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